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स्व॒राड॒स्युदी॑ची॒ दिङ्म॒रुत॑स्ते दे॒वाऽअधि॑पतयः॒ सोमो॑ हेती॒नां प्र॑तिध॒र्त्तैक॑वि॒ꣳशस्त्वा॒ स्तोमः॑ पृथि॒व्या श्र॑यतु॒ निष्के॑वल्यमु॒क्थमव्य॑थायै स्तभ्नातु वैरा॒जꣳसाम॒ प्रति॑ष्ठित्याऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ऽऋष॑यस्त्वा प्रथम॒जा दे॒वेषु॑ दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थन्तु विध॒र्त्ता चा॒यमधि॑पतिश्च॒ ते त्वा॒ सर्वे॑ संविदा॒ना नाक॑स्य पृ॒ष्ठे स्व॒र्गे लो॒के यज॑मानं च सादयन्तु ॥१३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्व॒राडिति॑ स्व॒ऽराट्। अ॒सि॒। उदी॑ची। दिक्। म॒रुतः॑। ते॒। दे॒वाः। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतयः। सोमः॑। हे॒ती॒नाम्। प्र॒ति॒ध॒र्त्तेति॑ प्रतिऽध॒र्त्ता। एक॑विꣳश॒इत्येक॑ऽविꣳशः। त्वा॒। स्तोमः॑। पृ॒थि॒व्याम्। श्र॒य॒तु॒। निष्के॑वल्यम्। निःऽके॑वल्य॒मिति॒ निःऽके॑वल्यम्। उ॒क्थम्। अव्य॑थायै। स्त॒भ्ना॒तु॒। वै॒रा॒जम्। साम॑। प्रति॑ष्ठित्यै। प्रति॑स्थित्या॒ इति॒ प्रति॑ऽस्थित्यै। अ॒न्तरि॑क्षे। ऋष॑यः। त्वा॒। प्र॒थ॒म॒जा इति॑ प्रथम॒ऽजाः। दे॒वेषु॑। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒न्तु॒। वि॒ध॒र्त्तेति विऽध॒र्त्ता। च॒। अ॒यम्। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। च॒। ते। त्वा॒। सर्वे॑। सं॒वि॒दा॒ना इति॑ सम्ऽविदा॒नाः। नाक॑स्य। पृ॒ष्ठे। स्व॒र्ग इति॑ स्वः॒ऽगे। लो॒के। यज॑मानम्। च॒। सा॒द॒य॒न्तु॒ ॥१३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:13


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे दोनों कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! जैसे (स्वराट्) स्वयं प्रकाशमान (उदीची) उत्तर (दिक्) दिशा (असि) है, वैसा (ते) तेरा पति हो जिस दिशा के (मरुतः) वायु (देवाः) दिव्यरूप (अधिपतयः) अधिष्ठाता हैं, उन के सदृश जो (एकविंशः) इक्कीस संख्या का पूरक (स्तोमः) स्तुति का साधक (सोमः) चन्द्रमा (हेतीनाम्) वज्र के समान वर्त्तमान किरणों का (प्रतिधर्त्ता) धारने हारा पुरुष (त्वा) तुझ को (पृथिव्याम्) भूमि में (श्रयतु) सेवन करे, (अव्यथायै) इन्द्रियों के भय से रहित तेरे लिये (निष्केवल्यम्) जिस में केवल एक स्वरूप का वर्णन हो, वह (उक्थम्) कहने योग्य वेदभाग तथा (प्रतिष्ठित्यै) प्रतिष्ठा के लिये (वैराजम्) विराट् रूप का प्रतिपादक (साम) सामवेद का भाग (स्तभ्नातु) ग्रहण करे (च) और जैसे तेरे मध्य में (अन्तरिक्षे) अवकाश में स्थित (देवेषु) इन्द्रियों में (प्रथमजाः) मुख्य प्रसिद्ध (दिवः) ज्ञान के (मात्रया) भागों से (वरिम्णा) अधिकता के साथ वर्त्तमान (ऋषयः) बलवान् प्राण हैं, वैसे (अयम्) यही इन प्राणों का (विधर्त्ता) विविध शीत को धारणकर्त्ता (च) और (अधिपतिः) अधिष्ठाता है (ते) वे (सर्वे) सब इस विषय में (संविदानाः) सम्यक् बुद्धिमान् विद्वान् लोग प्रतिज्ञा से (त्वा) तुझ को (प्रथन्तु) प्रसिद्ध करें और (नाकस्य) उत्तम सुखरूप लोक के (पृष्ठे) ऊपर (स्वर्गे) सुखदायक (लोके) लोक में (त्वा) तुझ को (च) और (यजमानम्) यजमान पुरुष को (सादयन्तु) स्थित करें ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग आधार के सहित चन्द्रमा आदि पदार्थों और आधार के सहित प्राणों को यथावत् जान के संसारी कार्यों में उपयुक्त करके सुख को प्राप्त होते हैं, वैसे अध्यापक स्त्री-पुरुष कन्या-पुत्रों को विद्या-ग्रहण के लिये उपयुक्त करके आनन्दित करें ॥१३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्याह ॥

अन्वय:

(स्वराट्) या स्वयं राजते (असि) अस्ति (उदीची) य उदङ्ङुत्तरं देशमञ्चति सा (दिक्) (मरुतः) वायवः (ते) तव (देवाः) दिव्यसुखप्रदाः (अधिपतयः) (सोमः) चन्द्रः (हेतीनाम्) वज्रवद्वर्त्तमानानां किरणानाम् (प्रतिधर्ता) (एकविंशः) एतत्संख्यापूरकः (त्वा) त्वाम् (स्तोमः) स्तुतिसाधकः (पृथिव्याम्) (श्रयतु) (निष्केवल्यम्) निरन्तरं केवलं स्वरूपं यस्मिंस्तत्र साधुम्। अत्र केर्धातोर्बाहुलकादौणादिको वलच् प्रत्ययः (उक्थम्) वक्तुं योग्यम् (अव्यथायै) अविद्यमानेन्द्रियभयायै (स्तभ्नातु) (वैराजम्) विराट्प्रतिपादकम् (साम) (प्रतिष्ठित्यै) (अन्तरिक्षे) (ऋषयः) बलवन्तः प्राणाः (त्वा) (प्रथमजाः) (देवेषु) (दिवः) (मात्रया) (वरिम्णा) (प्रथन्तु) (विधर्त्ता) विविधस्य शीतस्य धर्त्ता (च) (अयम्) (अधिपतिः) अधिष्ठाता (च) (ते) (त्वा) (सर्वे) (संविदानाः) सम्यक् कृतप्रतिज्ञाः (नाकस्य) (पृष्ठे) (स्वर्गे) (लोके) (यजमानम्) (च) (सादयन्तु) ॥१३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! यथा स्वराडुदीची दिग(स्य)स्ति तथा ते पतिर्भवतु यस्या दिशो मरुतो देवा अधिपतयः सन्ति तद्वद् य एकविंशः स्तोमः सोमो हेतीनां प्रतिधर्त्ता जनस्त्वा पृथिव्यां श्रयत्वव्यथायै निष्केवल्यमुक्थं प्रतिष्ठित्यै वैराजं साम च स्तभ्नातु यथा तेऽन्तरिक्षे स्थिता देवेषु प्रथमजा दिवो मात्रया वरिम्णा सह वर्त्तमाना ऋषयः सन्ति तथाऽयमेवैतेषां विधर्त्ता चाधिपतिरस्ति तत्र विषये ते सर्वे संविदाना विद्वांसस्त्वा प्रथन्तु नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके त्वा यजमानं च सादयन्तु ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसः सोमं प्राणांश्च साधिष्ठानान् विदित्वा कार्येषूपयुज्य सुखं लभन्ते तथा अध्यापका अध्यापिकाश्च शिष्यान् शिष्याश्च विद्याग्रहणायोपयुज्यानन्दयन्तु ॥१३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक चंद्र व प्राणशक्ती यांना योग्य रीतीने जाणून त्यांना प्रत्यक्ष उपयोगात आणतात व सुख प्राप्त करतात तसे अध्यापक स्त्री-पुरुषांनी मुला-मुलींना विद्या संपादन करण्यायोग्य बनवावे.